राजमंत्री ने दुर्ग का गुप्त द्वार खोला और रानी को राजकुमार के साथ बाहर निकाल दिया। रात्रि के घने
‘मुझे पहचानते हो भैया!’ रानी ने गृहस्वामी से पूछा।
अपनी रानी माता को कौन नहीं पहचानेगा? देवायत ने जवाब दिया।
और इसे? रानी ने नौघड़ की ओर संकेत करते हुए देवायत से प्रश्न किया।
हां-हां क्यों नहीं? युवराज हैं न। कहिए, कैसे आगमन हुआ मेरी झोंपड़ी में ? क्या आज्ञा है मेरे लिए? उसने हाथ जोड़कर प्रश्न किया।
हम तुम्हारी शरण में आए हैं भैया! रानी ने उत्तर दिया, यह तो तुम्हें मालूम ही होगा कि जूनागढ़ का पतन हो चुका है और तुम्हारे महाराज मारे जा चुके हैं। अब शत्रु तुम्हारे इस युवराज की जान के भूखे हैं, वे इसकी तलाश में हैं।’
आप चिंता मत करें रानी माता! देवायत ने कहा, ‘अंदर आइए। मेरे घर में जो भी रूखा-सूखा है, वह सब कुछ आपका दिया हुआ ही तो है।
देवायत ने रानी को अपने घर में आश्रय दिया। वह जानता था कि जूनागढ़ पर शत्रुओं का अधिकार हो चुका है और इसलिए राजवंश के किसी भी व्यक्ति का पक्ष लेना उसके लिए महान संकट का कारण बन सकता है, किन्तु वह राजपूत था और शरणागत के प्रति राजपूत के कर्तव्य को निभाना भी जानता था, और यही कारण था कि वह पहले रानी और युवराज को खिलाकर स्वयं पीछे खाता और उन्हें शैय्या पर सुलाकर स्वयं धरती पर सो जाता था ।
पर बात कब तक छिपती। आखिर शत्रु को अपने गुप्तचरों द्वारा पता लग ही गया कि जूनागढ़ की रानी और उनका पुत्र देवायत के घर में मेहमान हैं। अगले ही दिन पटटन की सेनाओं ने देवायत के मकान को घेर लिया।
देवायत! सेनापति ने कड़ककर पूछा, कहां है राजकुमार नौघड़?
मुझे क्या पता अन्नदाता! देवायत ने हाथ जोड़कर नम्रता से उत्तर दिया।
झूठ न बोलो देवायत! सेनापति ने आंखें तरेरते हुए कहा, नहीं तो कोड़ों की मार से शरीर की चमड़ी उधेड़ दी जाएगी।
जो चाहे करो मालिक! देवायत ने उत्तर दिया, तुम्हारी इच्छा क्या है?
अच्छा।’ सेनापति ने अपने सैनिकों की ओर देखते हुए कहा,इसे बांध दो इस पेड़ से और देखो की घर में कौन-कौन हैं?’
देवायत को पेड़ से बांध दिया गया। सैनिक घर में घुसकर उसकी तलाशी लेने को तैयार होने लगे।
‘अब क्या होगा?’ देवायत मन ही मन सोचने लगा,सामने ही तो बैठे हैं राजकुमार। कैसे बच पाएंगे वे इन यमदूतों के हाथों से।
और दूसरे ही क्षण उसने एक मार्ग खोज लिया।
ठहरो। वह पेड़ से बंधा बंधा ही चिल्ला उठा, मैं ही बुलवाए देता हूं राजकुमार को।
घर में घुसने वालों के कदम रुक गए। देवायत ने पत्नी को पास बुलाया और उसे संकेत से कुछ समझाया और फिर बोला, जा, देख क्या रही है? नौघड़ को लाकर सेनापति के सामने खड़ा कर दे।
पत्नी अंदर गई। नौघड़ और उसका पुत्र घर में एक साथ खेल रहे थे। उसने अपने पुत्र को उठाया,’ उसे छाती से लगाया, उसका मुख चूमा, उसे कुछ समझाया और फिर नौघड़ के वस्त्र पहनाकर वह सेनापति के सामने उसे बाहर ले आई।
क्या नाम है तुम्हारा? सेनापति ने पूछा। ‘ नौघड़।’ अहीर के पुत्र ने निर्भयता के साथ उत्तर दिया। और दूसरे ही क्षण सेनापति की तलवार से उसका सिर कटकर पृथ्वी पर जा गिरा।
शत्रु की सेनाएं देवायत को वृक्ष से खोलकर लौट गईं तो तब तक अपने आंसुओं को अपने नयनों में दबाए हुए अहीर दंपति बिलख उठे। रानी भी बाहर निकली और नौघड़ भी, किंतु वहां उन्होंने जो कुछ भी देखा उसे देखकर वे सबकुछ समझ गए।
यह तुमने क्या किया भैया! रानी चीख उठी।
वही, जो मुझे करना चाहिए था रानी माता! देवायत ने रोते हुए उत्तर दिया, मैं गरीब हूं तो क्या, हूं तो राजपूत ही। शरणागत के लिए बलिदान की ऐसी गाथाएं भारत के इतिहास की अपनी एक विशेषता है
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