![रत्नमंजरी की कहानी रत्नमंजरी की कहानी](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKooNfAxpxTCT3unQnGWjLaS39Msoepe7a1Icn_L0SQcyv1E3hF5bSejbfRnwRZkb_Os7JwL_nGIxfiTmEZ_l7IK7yykzrufD1dZDdyD-_t9aq8a5nWOkwjVAYLZ45K5B9BkCsi3uzQ103/s1600/index.jpg)
अंबावती की राज्धानी में एक राजा राज करता था। वह बल्शाली राजा होने के कारण उसका बड़ा रौब था। वह बड़ा दानी राजा था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राहृण दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र थी । ब्राहृणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राहृणीत रक्खा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रक्खा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रक्खा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।
जब वे लड़के बड़े हुए तो ब्राह्यणी का बेटा दीवान बना। बाद में वहां बड़े झगड़े हुए। उनसे तंग आकर वह लड़का घर से निकल पड़ा और धारापूर आया। हे राजन्! वहां का राज तुम्हारा बाप था। उस लड़के ने किया क्या कि राजा को मार डाला और राज्य अपने हाथ में करके उज्जैन पहुंचा। संयोग की बात कि उज्जैन में आते ही वह मर गया। उसके मरने पर क्षत्राणी का बेटा शंख गद्दी पर बैठा। कुछ समय बाद विक्रमादित्य ने चालाकी से शंख को मरवा डाला और स्वयं गद्दी पर काबिज हो गया।
एक दिन राजा विक्रमादित्य शिकार खेलने गया। बियावान घना जंगल था। रास्ता सूझे नहीं सूझता था। वह एक पेड़ पर चढ़ गया। ऊपर जाकर चारों ओर निगाह दौड़ाई तो पास ही उसे एक काफ़ी बड़ा शहर नजर आया । अगले दिन राजा ने अपने नगर में लौटकर उस नगर के वजीर को अपने पास बुलवाया। उस नगर का वजीर आया तो राजा ने आदर से उसे बिठाया और शहर के बारे में पूछा तो उसने कहा,
वहां बाहुबल नाम का राजा बहुत दिनों से राज करता है। आपके पिता गंधर्वसेन उसके दीवान थे। एक बार राजा को उन पर अविश्वास हो गया और उन्हें नौकरी से हटा दिया। गंधर्बसेन अंबावती नगरी में आये और वहां के राजा हो गये। हे राजन्! आपको जग जानता है, लेकिन जबतक राजा बाहुबल आपका राजतिलक नहीं करेगा, तबतक आपका राज अचल नहीं होगा। मेरी बात मानकर राजा के पास जाओं और प्यार में भुलाकर उससे तिलक कराओं।
विक्रमादित्य ने कहा, अच्छा। और वह लूतवरण को साथ लेकर वहां गया। बाहुबल ने बड़े आदर से उसका स्वागत किया और बड़े प्यार से उसकी मेहमान नवाजी की । पांच दिन बीत गये। लूतवरण ने विक्रमादित्य से कहा, जब आप विदा लोगे तो बाहुबल आपसे कुछ मांगने को कहेगा। राजा के घर में एक सिंहासन हैं, जिसे महादेव ने राजा इन्द्र को दिया था। और इन्द्र ने बाहुबल को दिया था । उस सिंहासन में यह गुण है कि जो उसपर बैठेगा। वह सात द्वीप नवखण्ड पृथ्वी पर राज करेगा। उसमें बहुत-से जवाहरात जड़े हैं। उसमें सांचे में ढालकर बत्तीस पुतलियां लगाई गई है। हे राजन्! तुम वचन में आः सिंहासन ही मांग लेना।
अगले दिन ऐसा ही हुआ। जब विक्रमादित्य विदा लेने गया तो उसने वही सिंहासन मांग लिया। वचनो में बन्धे होने के कारण बाहुबल ने सिंहासन विक्रमादित्य को दे दिया। बाहुबल ने विक्रमादित्य को उसपर विराजमान करके उसका तिलक किया और बड़े प्रेम से उसे विदा कर दिया।
इससे विक्रमादित्य का मान बढ़ काफ़ी गया। जब वह लौटकर घर आया तो दूर-दूर के राजा उससे मिलने के लिये आये। विक्रमादित्य अमन चैन से राज करने लगा।
एक दिन राजा ने सभा की और पंडितों को बुलाकर कहा, मैं एक अनुष्ठान करना चाहता हूं। आप देखकर बतायें कि मैं इसके योग्य हूं या नहीं। पंडितों ने कहा, महाराज आपका प्रताप तीनों लोकों में छाया हुआ है। आपका कोई दुशमन नहीं है । जो करना हो, कीजिए। पंडितों ने यह भी बताया कि अपने कुनबे के सब लोगों को बुलाइये, सवा लाख कन्यादान और सवा लाख गायें दान कीजिए, ब्राह्याणों को धन दीजियें, जमींदारों का एक साल का लगान माफ कर दीजिये।
राजा ने वह सब कुछ किया जो जो ब्राहमनो नें बताया था। एक बरस तक वह घर में बैठा पुराण सुनता रहा। उसने अपना अनुष्ठान इस ढंग से पूरा किया कि दुनिया के लोग धन्य –धन्य करते रहे।
इतना कहकर पुतली बोली, हे राजन्! तुम ऐसे हो तो सिंहासन पर बैठो।
पुतली की बात सुनकर राजा भोज ने अपने दीवान को बुलाकर कहा, आज का दिन तो गया। अब तैयारी करो, कल सिंहासन पर बैठेंगे।
अगले दिन जैसे ही राजा ने सिंहासन पर बैठना चाहा कि दूसरी पुतली, हैं जो राजा विक्रमादित्य जैसा गुणी हो।
राजा ने पूछा, विक्रमादित्य में क्या गुण थे?
पुतली ने कहा, सुनो मैं कहानी में कहती हूं !
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