शेखचिल्ली की चिट्ठी
मियाँ शेख चिल्ली के भाई दूर किसी शहर में बसते थे। किसी ने शेख चिल्ली को बीमार होने की खबर दी तो उनकी खैरियत जानने के लिए शेख ने उन्हें खत लिखा। उस जमाने में डाकघर तो थे नहीं, लोग चिट्ठियाँ गाँव के नाई के जरिये भिजवाया करते थे या कोई और नौकर चिट्ठी लेकर जाता था।
लेकिन उन दिनों नाई उन्हें बीमार मिला। फसल कटाई का मौसम होने से कोई नौकर या मजदूर भी खाली नहीं था अत: मियाँ जी ने तय किया कि वह खुद ही चिट्ठी पहुँचाने जाएँगे। अगले दिन वह सुबह-सुबह चिट्ठी लेकर घर से निकल पड़े। दोपहर तक वह अपने भाई के घर पहुँचे और उन्हें चिट्ठी पकड़ाकर लौटने लगे।
उनके भाई ने हैरानी से पूछा - अरे! चिल्ली भाई! यह खत कैसा है? और तुम वापिस क्यों जा रहे हो? क्या मुझसे कोई नाराजगी है?
भाई ने यह कहते हुए चिल्ली को गले से लगाना चाहा। पीछे हटते हुए चिल्ली बोले - भाई जान, ऐसा है कि मैंने आपको चिट्ठी लिखी थी। चिट्ठी ले जाने को नाई नहीं मिला तो उसकी बजाय मुझे ही चिट्ठी देने आना पड़ा।
भाई ने कहा - जब तुम आ ही गए हो तो दो-चार दिन ठहरो। शेख चिल्ली ने मुँह बनाते हुए कहा - आप भी अजीब इंसान हैं। समझते नहीं। यह समझिए कि मैं तो सिर्फ नाई का फर्ज निभा रहा हूँ। मुझे आना होता तो मैं चिट्ठी क्यों लिखता?
शेखचिल्ली रेलगाड़ी में - शेखचिल्ली की कहानियां - Shekhchilli Stories
शेखजी ने बहुत सी नौकरियां की लेकिन उनका दिल नौकरी में नहीं लगता था । एकदिन उन्होंने मुंबई जाने की सोची , नौकरी करने के लिए नहीं, बल्कि हीरो बन्ने के लिए ।
वह सोचने लगे - 'कलाकार तो वह है ही, उसे फिल्मो में मौका भी मिल सकता है। एक बार फिल्मों में आ जाये तो वह तहलका मचा सकता है । चारों और उसी के चर्चे होंगे ।'
वह मुंबई के लिए चल दिए। टिकट लिया। स्टेशन यार कड़ी हुई गाडी में प्रथम श्रेणी के डिब्बे में जाकर बैठ गए । गाडी चल दी । चिल्ली अपने डब्बे में अकेले ही थे ।
वह सोचने लगे - 'लोग यूं तो कहते हैं की रेलों में इतनी भीड़ होती है, लेकिन यहाँ तो भीड़ है ही नहीं । पूरे डिब्बे में मैं तो अकेला बैठा हूँ ।'
उन्हें दर सा लगने लगा । इतनी बड़ी गाडी और वह अकेले । गाडी धडधडाती हुई भागी जा रही थी । रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी ।
वह सोच रहे थे - 'गाड़ियाँ जगह जगह रूकती हैं । कहीं कहीं तो घंटों कड़ी रहती है और एक ये है, जो रुकने का नाम ही नहीं लेती । बस भागी ही जा रही है, रुक ही नहीं रही है ।'
कई जिले पार करने के बाद जब गाडी रुकी तो बहार झांकते हुए एक नीले कपड़ो वाले रेलवे कर्मचारी को बुलाकर बोले -" ऐ भाई ! ये रेलगाड़ी है या अलादीन के चिराग का जिन्न ।"
"क्या हुआ ?"
"कमबख्त रूकती ही नहीं । खूब शोर मचाया, पर किसीने भी तो नहीं सुना ।"
"यह बस नहीं है की ड्राइवर या कंडक्टर को आवाज़ दी और कहीं भी उतर गए, यह रेलगाड़ी है मियां ।"
"रेलगाड़ी है मियां !" शेखचिल्ली बोला-"इस बात को मैं अच्छी तरह जानता हूँ ।"
"फिर क्यों पूछ रहे हो ?"
"क्या पूछ रहा हूँ ?"
"तुम तो यह भी नहीं जानते की रेलगाड़ी बिना स्टेशन आये नहीं रूकती ।"
"क्या बकते हो ! कौन बेवकूफ नहीं जानता, हम जानते हैं ।"
"जानते हो तो फिर क्यों पूछ रहे हो?"
"यह तो हमारी मर्जी है ।"
"ओह ! तो तुम मुझे मूर्ख बना रहे थे ?"
"अरे! बने बनाये को भला हम क्या बनायेंगे ?"
"ओह! नॉनसेन्स ।"
"नून तो खाओ तुम । अपन तो बिना दाल सब्जी के कभी नहीं खाते ।"
'अजीब पागल है ।' वह बडबडाता हुआ वहां से चला गया ।
शेखजी ठहाका लगाकर हंस पड़े और गाडी पुनः चल पड़ी ।
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